Thursday, 16 January 2020
अवश्य जानिए
आध्यात्मिक दृष्टि से भक्ति न करने से क्या हानि होती है?
भक्ति न करने से होने वाले हानि का विवरण :-
यह दम टूटै पिण्डा फूटै, हो लेखा दरगाह मांही।
उस दरगाह में मार पड़ैगी, जम पकड़ेंगे बांही।।
नर-नारायण देहि पाय कर, फेर चौरासी जांही।
उस दिन की मोहे डरनी लागे, लज्जा रह के नांही।।
जा सतगुरू की मैं बलिहारी, जो जामण मरण मिटाहीं।
कुल परिवार तेरा कुटम्ब कबीला, मसलित एक ठहराहीं।
बाँध पींजरी आगै धर लिया, मरघट कूँ ले जाहीं।।
अग्नि लगा दिया जब लम्बा, फूंक दिया उस ठाहीं।
पुराण उठा फिर पण्डित आए, पीछे गरूड पढाहीं।।
भावार्थ :- यह दम अर्थात् श्वांस जिस दिन समाप्त हो जाऐंगे। उसी दिन यह शरीर रूपी पिण्ड छूट जाएगा। फिर परमात्मा के दरबार में पाप-पुण्यों का हिसाब होगा। भक्ति न करने वाले या शास्त्राविरूद्ध भक्ति करने वाले को यम के दूत भुजा पकड़कर ले जाऐंगे, चाहे कोई किसी देश का राजा भी क्यों न हो, उसकी पिटाई की जाएगी। सन्त गरीबदास को परमेश्वर कबीर जी मिले थे। उनकी आत्मा को ऊपर लेकर गए थे। सर्व ब्रह्माण्डों को दिखाकर सम्पूर्ण अध्यात्म ज्ञान समझाकर वापिस शरीर में छोड़ा था। सन्त गरीब दास जी आँखों देखा हाल बयान कर रहे हैं कि :- हे मानव! आपको नर शरीर मिला है जो नारायण अर्थात् परमात्मा के शरीर जैसा अर्थात् उसी का स्वरूप है। अन्य प्राणियों को यह सुन्दर शरीर नहीं मिला। इसके मिलने के पश्चात् प्राणी को आजीवन भगवान की भक्ति करनी चाहिए। ऐसा परमात्मा स्वरूप शरीर प्राप्त करके सत्य भक्ति न करने के कारण फिर चौरासी लाख वाले चक्र में जा रहा है, धिक्कार है तेरे मानव जीवन को! मुझे तो उस दिन की चिन्ता बनी है, डर लगता है कि कहीं भक्ति कम बने और उस परमात्मा के दरबार में पता नहीं इज्जत रहेगी या नहीं। मैं तो भक्ति करते-करते भी डरता हूँ कि कहीं भक्ति कम न रह जाए। आप तो भक्ति ही नहीं करते। यदि करते हो तो शास्त्राविरूद्ध कर रहे हो। तुम्हारा तो बुरा हाल होगा और मैं तो राय देता हूँ कि ऐसा सतगुरू चुनो जो जन्म-मरण के दीर्घ रोग को मिटा दे, समाप्त कर दे। जो सत्य भक्ति नहीं करते, उनका क्या हाल होता है मृत्यु के पश्चात्।
आस-पास के कुल के लोग इकट्ठे हो जाते हैं। फिर सबकी एक ही मसलत अर्थात् राय बनती है कि इसको उठाओ। (उठाकर शमशान घाट पर ले जाकर फूँक देते हैं, लाठी या जैली की खोद (ठोकर) मार-मारकर छाती तोड़ते हैं। सम्पूर्ण शरीर को जला देते हैं। जो कुछ भी जेब में होता है, उसको निकाल लेते हैं। फिर शास्त्राविधि त्यागकर मनमाना आचरण कराने और करने वाले उस संसार से चले गए जीव के कल्याण के लिए गुरू गरूड पुराण का पाठ करते हैं।) तत्वज्ञान (सूक्ष्मवेद) में कहा है कि अपना मानव जीवन पूरा करके वह जीव चला गया। परमात्मा के दरबार में उसका हिसाब होगा। वह कर्मानुसार कहीं गधा-कुत्ता बनने की पंक्ति में खड़ा होगा। मृत्यु के पश्चात् गरूड पुराण का पाठ उसके क्या काम आएगा। यह व्यर्थ का शास्त्राविरूद्ध क्रियाक्रम है। उस प्राणी का
मनुष्य शरीर रहते उसको भगवान के संविधान का ज्ञान करना चाहिए था। जिससे उसको अच्छे-बुरे का ज्ञान होता और वह अपना मानव जीवन सफल करता।
प्रेत शिला पर जाय विराजे, फिर पितरों पिण्ड भराहीं।
बहुर श्राद्ध खान कूं आया, काग भये कलि माहीं।।
भावार्थ है कि मृत्यु उपरान्त उस जीव के कल्याण अर्थात् गति कराने के की जाने वाली शास्त्राविरूद्ध क्रियाऐं व्यर्थ हैं। जैसे गरूड पुराण का पाठ करवाया। उस मरने वाले की गति अर्थात् मोक्ष के लिए। फिर अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित की उसकी गति (मोक्ष) करवाने के लिए। फिर तेहरवीं या सतरहवीं को हवन व भण्डारा (लंगर) किया उसकी गति कराने के लिए। पहले प्रत्येक महीने एक वर्ष तक महीना क्रिया करते थे, उसकी गति कराने के लिए, फिर छठे महीने
छःमाही क्रिया करते थे, उसकी गति कराने के लिए, फिर वर्षी क्रिया करते थे उसकी गति कराने के लिए, फिर उसकी पिण्डोदक क्रिया कराते हैं, उसकी गति कराने के लिए श्राद्ध निकालते हैं अर्थात् श्राद्ध क्रिया कराते हैं, श्राद्ध वाले दिन पुरोहित भोजन स्वयं बनाता है और कहता है कि कुछ भोजन मकान की छत पर रखो, कहीं आपका पिता कौआ (काग) न बन गया हो। जब कौवा भोजन खा जाता तो कहते हैं कि तेरे पिता या माता आदि जो मृत्यु को प्राप्त हो चुका है जिसके हेतु यह सर्व क्रिया की गई है और यह श्राद्ध किया गया है। वह कौवा बना है, इसका श्राद्ध सफल हो गया। इस उपरोक्त विवरण से स्पष्ट हुआ कि वह व्यक्ति जिसका उपरोक्त क्रियाकर्म किया था, वह कौवा बन चुका है। श्राद्ध करने वाले पुरोहित कहते हैं कि श्राद्ध करने से वह जीव एक वर्ष तक तृप्त हो जाता है। फिर एक वर्ष में श्राद्ध फिर करना है।
विचार करें :- जीवित व्यक्ति दिन में तीन बार भोजन करता था। अब एक दिन भोजन करने से एक वर्ष तक कैसे तृप्त हो सकता है? यदि प्रतिदिन छत पर
भोजन रखा जाए तो वह कौवा प्रतिदिन ही भोजन खाएगा।
दूसरी बात :- मृत्यु के पश्चात् की गई सर्व क्रियाऐं गति (मोक्ष) कराने के उद्देश्य से की गई थी। उन ज्ञानहीन गुरूओं ने अन्त में कौवा बनवाकर छोड़ा। वह प्रेत शिला पर प्रेत योनि भोग रहा है। पीछे से गुरू और कौवा मौज से भोजन कर रहा है। पिण्ड भराने का लाभ बताया है कि प्रेत योनि छूट जाती है। मान लें प्रेत योनि छूट गई। फिर वह गधा या बैल बन गया तो क्या गति कराई?
नर से फिर पशुवा कीजै, गधा, बैल बनाई।
छप्पन भोग कहाँ मन बौरे, कहीं कुरड़ी चरने जाई।।
मनुष्य जीवन में हम कितने अच्छे अर्थात् 56 प्रकार के भोजन खाते हैं। भक्ति न करने से या शास्त्राविरूद्ध साधना करने से गधा बनेगा, फिर ये छप्पन प्रकार के भोजन कहाँ प्राप्त होंगे, कहीं कुरडि़यों (रूड़ी) पर पेट भरने के लिए घास खाने जाएगा। इसी प्रकार बैल आदि-आदि पशुओं की योनियों में कष्ट पर कष्ट उठाएगा।
जै सतगुरू की संगत करते, सकल कर्म कटि जाईं।
अमर पुरि पर आसन होते, जहाँ धूप न छाँइ।।
सन्त गरीब दास ने परमेश्वर कबीर जी से प्राप्त सूक्ष्मवेद में आगे कहा है कि यदि सतगुरू (तत्वदर्शी सन्त) की शरण में जाकर दीक्षा लेते तो उपरोक्त सर्व कर्मों के कष्ट कट जाते अर्थात् न प्रेत बनते, न गधा, न बैल बनते। अमरपुरी पर आसन होता अर्थात् गीता अध्याय 18 श्लोक 62 तथा अध्याय 15 श्लोक 4 में वर्णित सनातन परम धाम प्राप्त होता, परम शान्ति प्राप्त हो जाती। फिर कभी लौटकर संसार में नहीं आते अर्थात् जन्म-मरण का कष्टदायक चक्र सदा के लिए समाप्त हो जाता। उस अमर लोक (सत्यलोक) में धूप-छाया नहीं है अर्थात् जैसे धूप दुःखदाई हुई तो छाया की आवश्यकता पड़ी। उस सत्यलोक में केवल सुख है, दुःख नहीं है।
सुरत निरत मन पवन पयाना, शब्दै शब्द समाई।
गरीब दास गलतान महल में, मिले कबीर गोसांई।।
सन्त गरीबदास जी ने कहा है कि मुझे कबीर परमेश्वर मिले हैं। मुझे सुरत-निरत, मन तथा श्वांस पर ध्यान रखकर नाम का स्मरण करने की विधि बताई। जिस साधना से सतलोक में हो रही शब्द धुनि को पकड़कर सतलोक में चला गया। जिस कारण से सत्यलोक (शाश्वत स्थान) में अपने महल में आनन्द से रहता हूँ क्योंकि सत्य साधना जो परमेश्वर कबीर जी ने सन्त गरीब दास को जो बताई थी और उस स्थान (सत्यलोक) को गरीब दास जी परमेश्वर के साथ जाकर देखकर आए थे। जिस कारण से विश्वास के साथ कहा कि मैं जो शास्त्रानुकूल साधना कर रहा हूँ, यह परमात्मा ने बताई है। जिस शब्द अर्थात् नाम का जाप करने से मैं अवश्य पूर्ण मोक्ष प्राप्त करूँगा, इसमें कोई संशय नहीं रहा। जिस कारण से मैं (गरीब दास) सत्यलोक में बने अपने महल (विशाल घर) में जाऊँगा, जिस कारण से निश्चिन्त तथा गलतान (महल प्राप्ति की खुशी में मस्त) हूँ क्योंकि मुझे पूर्ण गुरू स्वयं परमात्मा कबीर जी अपने लोक से आकर मिले हैं।
गरीब, अजब नगर में ले गए, हमको सतगुरू आन।
झिलके बिम्ब अगाध गति, सूते चादर तान।।
भावार्थ :- गरीबदास जी ने बताया है कि सतगुरू अर्थात् स्वयं परमेश्वर कबीर जी अपने निज धाम सत्यलोक से आकर मुझे साथ लेकर अजब (अद्भुत) नगर में अर्थात् सत्यलोक में बने शहर में ले गए। उस स्थान को आँखों देखकर मैं परमात्मा के बताए भक्ति मार्ग पर चल रहा हूँ। सत्यनाम, सारनाम की साधना कर रहा हूँ। इसलिए चादर तानकर सो रहा हूँ अर्थात् मेरे मोक्ष में कोई संदेह नहीं है।
चादर तानकर सोना = निश्चिंत होकर रहना। जिसका कोई कार्य शेष न हो और कोई चादर ओढ़कर सो रहा हो तो गाँव में कहते है कि अच्छा चादर तानकर सो रहा है। क्या कोई कार्य नहीं है? इसी प्रकार गरीबदास जी ने कहा है कि अब बडे़-बडे़ महल बनाना व्यर्थ लग रहा है। अब तो उस सत्यलोक में जाऐंगे। जहाँ बने बनाए विशाल भवन हैं, जिनको हम छोड़कर गलती करके यहाँ काल के मृत्यु लोक में आ गए हैं। अब दॉव लगा है। सत्य भक्ति मिली है तथा तत्वज्ञान मिला है।
सज्जनों! वह सत्य भक्ति वर्तमान में (रामपाल दास के) पास है। जिससे इस दुःखों के घर संसार से पार होकर वह परम शान्ति तथा शाश्वत स्थान (सनातन परम धाम) प्राप्त हो जाता है जिसके विषय में गीता अध्याय 18 श्लोक 62 में कहा है तथा गीता अध्याय 15 श्लोक 4 में कहा है कि तत्वदर्शी सन्त से तत्वज्ञान प्राप्त करके, उस तत्वज्ञान से अज्ञान का नाश करके, उसके पश्चात् परमेश्वर के उस परमपद की खोज करनी चाहिए। जहाँ जाने के पश्चात् साधक फिर लौटकर संसार में कभी नहीं आता।
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